वरिष्ठ पत्रकार गुंजन सिन्हा ने व्यथित हो अपने साथी पत्रकारों को कुछ यूँ लिखा
“हे परमपिता परमेश्वर ! कृपया मुझे बताएं मेरे अधिकांश पत्रकार मित्र मेरे सवालों पर चुप्पी क्यों साध लेते हैं? मेरे प्रति ऐसा अन्याय क्यों प्रभु ? क्या मेरे प्रश्न अनुचित, अवैध, बेमतलब हैं कि पत्रकारगण लाइक तक नही करते? आगे पूछना तो दूर की बात. मैंने निवेदन किया था – पत्रकारों से निवेदन है, अपने इलाके के कालेजों विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की कमी पर एक सर्वे आज शिक्षक दिवस के मौके पर करें. शिक्षा मंत्री और कुलाधिपति से पूछें कि जहाँ शिक्षक ही नही वहां पढ़ाई कैसे होगी? छात्रों और उनके संगठनों से पूछें, शिक्षकों की कमी पर आंदोलित क्यों नही हुए? उनके माँ बाप से पूछें, बच्चे की पढ़ाई सुनिश्चित क्यों नही की? बस नाम लिखा कर आप वैतरणी पार हो गए? नीतीश से पूछें, शिक्षा और ज्ञान से लाखों बच्चों को वंचित करने लिये आप को कुम्भीपाक में कितने लाख साल खौलते तेल में पकाया जाना चाहिए?
किसी ने ये नही कहा कि हाँ मैं पूछूँगा.”
दिल्ली विवि के पूर्व प्राध्यापक और बिहार सरकार में उच्च शिक्षा में कार्यरत डा प्रदीप चौधरी ने विस्तृत जवाब दिया-
“मैं सिर्फदिल्ली और बिहार के बारे में कुछ बातें साझा कर सकता हूँ . देखा जाये तो दिल्ली विश्वविद्यालय में भी शिक्षकों की नियुक्ति पिछले 10 में सालों नहीं हुई है. हिमाचल, यू.पी. एम. पी. कोई इसका अपवाद नहीं. एक दो बातें जो मुझे निजी तौर पर लगाती है वह यह कि विश्वविद्यालय के शिक्षक जितना अपने ट्रेड यूनियन को मजबूत बनाते गए सरकारी अधिकारिओं के अन्दर चिढ़ और बदले की भावना बढती चली गयी. अर्थव्यवस्था के अंतर्राष्ट्रीयकरण होने के साथ साथ भारत को शिक्षा सेवा बेचने वाला देश बनाने का लक्ष्य अफसरों के सामने उपस्थित हुआ. इस रास्ते में विश्वविद्यालयों की शिक्षक और छात्र राजनीति उन्हें एक बाधा दिखी. तो खोज शुरू हुई कि बांकी विकसित देश अपने विश्वविद्यालयों को राजनीतिक असरों से कैसे बचाते हैं. तो दो तरीका है. छात्रों को सतत परीक्षा में व्यस्त रखो और शिक्षकों को सतत नयी नौकरी पाने में. और भी कारण हैं, शिक्षक समुदाय भी दोषी है की उसने हर जगह अकादमिक दृष्टि से कमजोर लोगों केहाथ में कमान दे रक्खी है जो अब बौधिक और वैचारिक नेत्रित्व देने में कमजोर साबित हो रहे हैं रही बात बिहार की तो वहां तो तदर्थ और अस्थायी शिक्षक भी नहीं हैं. बिहार सरकार ने BPSC को ४००० शिक्षकों की नियुक्ति का जिम्मा २साल पहले दिया था. मुश्किल से आधी प्रक्रिया पूरी हुई, इस बीच ७००० और पद खाली हो गए. अब सरकार ने फिर से राज्य उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग के गठन केदिशा में काम करना शुरू कर दिया है और लगता है कि यदि कोई बहुत असामान्य बात न हो तो साल भर केअन्दर काफी नियुक्तियां हो जानी चाहिए. लेकिन समस्याएँ और भी हैं नेट पास मेधावी उम्मीदवार ग्रामीण इलाकों के कॉलेज में अपना जीवन नहीं देना चाहता है. सबको पटना , मुज़फ्फरपुर भागलपुर चाहिए. वाजिब है . इसलिए नियुक्ति के तुरंत बाद लोग ट्रांसफर करा बड़े शहरों की तरफ भागते हैं .इसलिए शहरों में शिक्षकों का आभाव कम है. गरीब राज्यों केपास संसाधन का आभाव भी रहा है , इसे नहीं मानने का कोई कारण नहीं है. मुझे उम्मीद है आप जैसे पत्रकार लगातार तीखे सवाल पूछ कर सरकारों पर दवाव बनाते रहें . धीमी रफ़्तार ही सही बदलाव आयेगा. पर उतनी तेज नहीं जितनी हम सब चाहते हैं. बड़ी कहानी है दिन भर की गोष्ठी होनी चाहिए.”
गुंजन सिन्हा बेचैन ही रहे
“प्रदीप जी , शिक्षा में गिरावट की वजहें बहुत सी हैं और इनमे से किसी का कोई प्रतिरोध नहीं किया जाता. छात्रों के संघ और शिक्षकों की ट्रेड यूनियनें न तो स्वस्थ हैं और न सबल. हो सकता है आपकी धारणा दिल्ली के अनुभव पर आधारित हो. बिहार में इनका कोई दखल शिक्षा नीति में नही है. और इनकी धुरी जाति राजनीति, वेतन अन्य सुविधाओं की मांग तक सीमित है. जगन्नाथ मिश्र के समय से चल रही वित्तरहित शिक्षा नीति, शिक्षकों की नियुक्ति के लिए प्रभावकारी दबाव डालने, शिक्षकों की कुल गतिविधि को सिर्फ एपीआइ केन्द्रित बनाने की यूजीसी की नीति, फर्जी शोध, ठगी प्रोजेक्ट, कमाऊ सेमीनार, शोध छात्रों के शोषण, अकादमिक यौन शोषण, सिलेबस सुधार, अकादमिक जातिवाद, जैसे मुद्दों पर इनके कंठ से कोई कराह कभी सुनी आपने ? शिक्षकों को मैंने कापियां जांच करते भी देखा है और बिना कापी पर एक भी क्षण गंवाए नम्बर देते भी. लाल्केश्वर तो बस एक नमूना है. ज्यादातर गंवार और स्वार्थी माँ बाप भी किसी तरह बस बेटे को कमाऊ बना देना और बेटी को ब्याह कर चलता कर देना चाहते हैं.. हम लोग किसी विपर्यय का प्रतिरोध नही करते और हमारी लगभग पूरी आबादी मंटो की कहानी ‘खोल दो’ की उस लड़की की तरह रेस्पांस करती है, जो इतने बलात्कार का शिकार हो चुकी है कि हर निर्देश पर बस अपनी सलवार उतार देती है.”
यह बहस कुछेक बुनियादी मुद्दों और समस्याओ को रेखांकित करती है जो कमोबेश पूरे भारत के लिए वैध है.
जहां एक और डा चौधरी का कथन “अर्थव्यवस्था के अंतर्राष्ट्रीयकरण होने के साथ साथ भारत को शिक्षा सेवा बेचने वाला देश बनाने का लक्ष्य अफसरों के सामने उपस्थित हुआ….” शिक्षा संस्थानों के स्वरुप, उपयोगिता और दरअसल समूची व्यवस्था को एक गंभीर बुनियादी दिशा परिवर्तन का संकेत देता है तो वही गुन्जन सिन्हा के पूरी शिक्षण व्यवस्था के अनैतिक, सरोकार-विहीन और बेईमान होने पर व्याकुल होना बदलाव का आग्रह है ; वस्तुतः इस समाज की वो आवाज है जो राजनितिक वर्ग और जीर्ण शीर्ण शिक्षा व्यवस्था से चीख कर कह रहा है . बदलो.
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